एक शाम

एक शाम

Here goes a poem, after a very long time. My usual space, romance. Romance on the mountains, in the old, less taken paths of the mountains. Hope you like this too.

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एक शाम

एक शाम पहाड़ों पर
बीती जो साथ तेरे
वो नदी किनारे बैठना
ले हाथों में हाथ तेरे।

फ़िर लेट जाना वही
गोद में सिर रखकर तेरी।
और देखना तेरी आंखों को
जिनमें बस मोहब्बत थी भरी।

याद है वो पल
मुझे आज भी।
जब कहा था मैंने
कि तुम दिन हो मेरा, और रात भी।

फ़िर हाथों में लेके
वो सुंदर चेहरा तेरा।
देखा कि कितना है
इश्क़ गहरा मेरा।

 

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फ़िर आंखों में देखा तुमने,
और एक मीठी सी मुस्कान दी।
लगा मुझे कि बस यही जन्नत है,
और यही है मेरा मुकाम भी।

तुम्हारी हसी देखने को ही तो,
सदा नादानियां करता हूं मैं।
तुम इश्क़ हो मेरा और अभिमान भी,
किसी और से नहीं बस तुम्हें खोने से ही तो डरता हूं मैं।

ज़िन्दगी में सब अस्थिर,
बस स्थिर रहना तुम।
चाहे कितना ही सताऊ मैं,
गुस्सा होना, पर मेरे साथ ही रहना तुम।

तुमसे दूर अब रहना नहीं,
तुम्हारे संग ही तो हर पल हूं में जिया।
तुम्हीं मेरा इश्क़ हो, तुम्हीं मेरा जुनून,
तुम ही हो मेरी पिया।

 

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